कविता नारी

{नारी}


सबको ढांढस बंधाते बंधाते
कभी खुद ही ""टूट"" जाती हूं !!
सबको आगे बढ़ाते बढ़ाते
कभी खुद ही पीछे छूट जाती हूं !!


मैं नारी हूं ""सशक्त"" मगर
अति उदार है "हृदय" मेरा !!
भीतर मन के बोझ बथेरे
फिर भी मुस्काता है चेहरा !!


कैंसे जियूं खुलकर यहां
मुझको हरदम ताने पड़ते हैं !!
खामोशी से गुनाह सहकर 
आंसू अपने छुपाने पड़ते हैं !!


ये समाज ना जाने कैसा है
यहां दबकर रहना पड़ता है !!
मैं नारी हूं ""सशक्त"" मगर
दर्द बेइंतहा सहना पड़ता है !!


आरती गौड़
(लेखिका)


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