पंडित जी के मन की पीड़ा

पंडित जी ढूंढे नहीं मिलेगे


" बहन जी ! कोई अंग्रेजी पढ़ाने वाला है तो बेटे के लिए बताना ।" 


" पंडित जी ! हिंदी और संस्कृत पढ़ाओ बच्चे को ,  आप लोगों के तो यही काम आएगी ।" 


" पंडित नहीं बनाना है मुझे,  अपना बेटा ।"


" क्यों ? अच्छा भला चढ़ावा चढ़ता है , अच्छी भली इज्ज़त भी मिलती है । " 


" बहन जी ! सारा दिन आस लगाए बैठे रहतें हैं कि कोई पूजा पाठ जाप , भजन,  कीर्तन कराए , तो खर्चे के लिए चार पैसे मिले क्योंकि स्कूल वालों को फीस पूरी चाहिए , ना हम अल्पसंख्यक हैं ना ही अनुसुचित या पिछड़ा वर्ग , खेत हमारे पास नहीं, व्यापार हमारे नहीं । लेकिन गृहस्थी तो हमारी भी है ख़र्चे हमारे यहाँ भी हैं ।
मुँह खोल कर माँग ले तो लालची हैं , पंडित जी को संतोष होना चाहिए । कलियुग आ गया , कैसे पंडित हैं ?
 फ़िल्म तक में पंडितों को लालची,  भगवान के प्रति आस्था को अंध विश्वास , दिखाकर दर्शकों को हँसाने का प्रयास किया
 जाता है । कभी कभी मन भर आता है कि दूसरे धर्म के लोग अपने धर्म गुरुओं की बात को पत्थर की लकीर मानते हैं ,कोई कटाक्ष नहीं कर सकता है ।
और हम , हमारे मंदिर  , हमारे भगवान - पर तो  ------- " 
पूजारी की नम आँखे देखकर मैंने बात बदलते हुए कहा ,
  " मंदिर में चढ़ावा भी तो  ------ "


"  आज-कल के बच्चों का धर्म में,  कर्म- कांड में विश्वास नहीं है और बड़े बूढ़े लोग फल फूल पत्ते तो चढ़ाते हैं , लेकिन रुपया पैसा हाथों से नहीं छूट पाता है । " 


"  कई मंदिरों में तो खूब श्रृद्धालु आतें हैं ,  खूब रूपया पैसा चढ़ता है ।"


" ऐसे मंदिरों में ट्रस्ट बनी होती है :  जो उस पुजारी को नौकरी देती है , जो -  सबसे कम सैलरी पर मान जाए । 
 तीन चार हज़ार रूपए महीने में भी पुजारी मिल जाते हैं ।
और जो वेतन दस और पंद्रह हज़ार रूपए पाते हैं ,  वें सुबह शाम अपनी तलाशी देने के बाद ही प्रवेश और निकास कर पाते हैं ।" 


" यह तो सरासर ग़लत है । अपमान है  ।
सुना है सरकार भी पूजा स्थलों के लिए कुछ राशि देने लगी है ।"


" नहीं जी ! बहुसंख्यक धार्मिक स्थलों पर तो कब्ज़ा करने के लिए आतुर रहतीं हैं सरकारें ।
हाँ अल्पसंख्यक धार्मिक स्थलों के पुजारियों की बल्ले बल्ले जरुर है , सरकार खूब लुभाती हैं । 
बहन जी ! देखना ! एक दिन पंडित जी नहीं मिला करेंगे मंदिर में बस । हमने तो भगवान भरोसे पेट भर लिया ,पर बच्चों की तो जमाने के साथ आवश्यकताएँ भी हैं ।"


" पंडित जी ! आप मंदिर में थोड़ी सी देर ही तो बैठते हो ।" 


" आपके पति या आप , अपने घंटे गिन लो , फिर आप भी तो आॅवर टाइम कर लेते हो , यदि मैं किसी के घर पूजा पाठ करने चला गया , चार पैसे कमा भी लाया तो , मंदिर का काम तो पहले कर ही देता हूँ ।
सुबह पाँच बजे मंदिर के कपाट खोलता हूँ । पूजा आरती ,सभी विधि विधान से करता हूँ । 
हाँ ! पंडित जी ! आज पैसा तो ज़रुरत है , इसके बिना तो किसी का भी जीवन नहीं चल पाता है ।"
 यह  जानते हुए भी हम एन० जी ०ओ ० में दान देते हैं , भंडारे कराते हैं , और न जाने कितने बेकार खर्च कर देते हैं ,  लेकिन जो स्थान , हमारे मन और आत्मा को शांति प्रदान करते हैं , संस्कार भरतें हैं उनकी उपेक्षा करते हैं । मैं मन ही मन सोचा ।


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