जिनकी कमाई से खाती है दिल्ली
मुशीबत में उनको भगाती है दिल्ली
नहीं वास्ता इसका इन्सानियत से
न जाने क्यों फिर भी सुहाती है दिल्ली
दौलत के अम्बार हैं इसकी चाहत
नहीं मुँह किसी को लगाती है दिल्ली
ज़रूरत पे पैरों में पड़ती मिलेगी
निकलता जो मतलब सताती है दिल्ली
नहीं सोच में इसके गम्भीरता है
हवा में ही डंडा घुमाती है दिल्ली
भगाया है जिनको वो दिल्ली न आएँ
किस तरह देखना फड़फडाती है दिल्ली
महनत करो गाँव में अपने जमके
मुँह फेर लो गर बुलाती है दिल्ली
बृजेन्द्र "हर्ष"
हरिद्वार।
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