महर्षि दधिचि, राजा शिवी से प्रारंभ हुआ देहदान का पुण्य कार्य
एक देहदान से 9 लोगों को मिलता हैं जीवन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जिसका जीवन समाज के लोगों के सहयोग के बिना सम्भव ही नहीं है, कभी आपने कल्पना की है कि अगर किसी शिशु को जन्म के बाद अकेला छोड़ दें तो क्या वह जीवित रह पाएगा, शायद बिल्कुल नहीं फिर समाज के सहयोग से पले बढे इस अबोध शिशु का समाज के प्रति कोई कर्त्तव्य नहीं है। जब से शिशु माता के गर्भ में आता है तब से ही उसके जीवन में दूसरो का सहयोग शामिल हों जाता है, डाक्टर माता पिता को बच्चे के आने की सूचना देता है और सुरक्षित प्रसव और बड़े होने तक डाक्टर, नर्स आदि का योगदान रहता है, दादी, चाची, ताई, मौसी, बुआ आदि उस अबोध शिशु को मिलकर पालते हैं, टीचर, टीयूटर मिलकर उसे शिक्षित करते हैं माता पिता संसाधन उपलब्ध करवाते है युवा होने पर रिश्तेदार शादी करवा देते है और फिर वही जीवन चक्र चलता रहता है और इस जीवन चक्र का अंतिम बिंदु मृत्यु है जो शाश्वत सत्य है।
आपने कभी सोचा है कि समाज के सहयोग से प्राप्त शरीर को जिसका अपना कुछ भी नहीं है उसे मृत्यु के बाद चिता में जलाना, कब्र में दफनाना, नदी में बहाना कँहा तक उचित है मृत्यु से पहले इस शरीर से हम केवल अपना और अपनो का भला करते हैं, मृत्यु के बाद यह शरीर समाज के काम नहीं आना चाहिए क्या,
देहदान ऐसा ही दान हैं जिसकी परम्परा महर्षि दधिचि और राजा शिवी ने की थी उसी परम्परा को नानाजी देशमुख, कामरेड ज्योति बसु, जैसे न जाने कितने लोगों ने आगे बढाया,
क्या आप को पता है ब्रेन डेड हो जाने बाद हमारे अंगो से 9 नौ लोगों को जीवन मिलता हैं, दो लोग दुनिया देख पाते है, एक व्यक्ति के सीने में दिल धडकने लगता है, चार लोगों को जीने के लिए लीवर, दो को किडनी मिल जाती हैं। मृत्यु के बाद चिता में जलाने और दफनाने से राख और मिट्टी ही हाथ आती है।
अब विचार करे।
मेरी बात पसंद आई हो तो इस बात को आगे बढाये (जय श्री कृष्ण) संजय वर्मा
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