आचार्य करूणेश मिश्र जी के जीवन की रोमांचकारी घटना

मेरे जीवन का एक रोमांचकारी संस्मरण --आचार्य करूणेश मिश्र जी की कलम से 


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फानूस बनकर जिसकी हिफाजत हवा करे !
         वो शमा क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे !!
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       वर्षा ऋतु विदा ले चुकी थी; शरद का शैशव भी सीमा लाँघकर बाल्यावस्था में प्रविष्टप्राय हो चुका था..... पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विहरता चन्द्र और उससे फूटकर धरती की ओर भागती निर्बाध, निष्कलंक अमृत वर्षिणी चाँदनी धरा को स्नान करा रही थी......नील धवल, स्फटिक-सा आकाश, कमल-कुमुदिनियों भरे ताल-तड़ाग,  संपूर्ण धरती को श्वेत चादर में ढँकने को आकुल कास-जवास के सफेद ऊर्ध्वमुखी पुष्प धरा का श्रृंगार कर रहे थे !!
    
    बात, पितृ पक्ष की अष्टमी की है....शिवालिक पर्वतमालाओं के मध्य वन प्रान्त में स्थित माँ सुरेश्वरी मन्दिर में पूजन कर, मैंने अपने शिष्य विशाल के साथ उसकी रॉयल एनफील्ड पर शरद संपदा के दर्शन का आनंद लेते हुए अभी जंगल का लगभग आधा मार्ग ही तय किया था कि अचानक...... हम दोनों की नज़र एकाएक अपनी बायीं ओर गयी, जहाँ मात्र पचास कदम की दूरी पर "मौत" भयंकर रूप धारण किये तेज रफ्तार से हमारी ओर दौड़ी आ रही थी। .... शेरों की दुनिया में सबसे निर्दयी और भयानक, विशालकाय "बाघ" अपनी खूंखार आँखे हम पर गड़ाये पूरी रफ्तार से दौड़ता हुआ हमारी ओर आ रहा था। शरीर के साथ-साथ हमारे मन और मस्तिष्क ने भी काम करना बन्द कर दिया, खून पूरी तरह जम गया। बाइक के दौड़ते पहिये जाम हो गये। "मौत" से भला कोई भाग सका है ?...... सुनसान जंगल में बस "जंगल का राजा" था और उसके दोपहर के भोजन की व्यवस्था के लिये व्यंजन स्वरूप खड़े हुए हम दोनों थे। मौत को निर्निमेष निहारती हम दोनों की आँखे पथरा चुकी थी, जवाब दे चुके थे हाथ-पैर,  निष्प्राण को चुके शरीर में कुछ शेष था तो शायद तीव्र गति से धड़कती धड़कने थी, उन्हें भी बन्द होने में मात्र तीन सेकेंड का समय रह गया था।...... परन्तु शिकारी और शिकार के अलावा उस मौन वन में कोई और भी था, जिसने कुछ पल बाद घटने वाली उस दुर्घटना से ठीक पहले आकर न जाने क्या किया कि अचानक वह हो गया, जिसकी कोई उम्मीद ही नही थी।...... लगभग २०० कि. मी. प्रतिघंटा की रफ्तार से हमारी ओर आता हुआ वह वनराज ठीक हमारे सामने से दौड़ता हुआ, हमारी दायीं ओर निकलकर कुछ पल में ही अदृश्य हो गया !! 
        
           अचेतना के साम्राज्य से निकलकर हम दोनों निःशब्द हुए, विस्मयकारी नज़रों से एक दूसरे को देख रहे थे !! 'मौन' ही मानों मुखर होकर  प्रश्न कर रहा था - "यह क्या हुआ ? .. हम कैसे बचे ? ...और जवाब में हवा के झोंके के साथ दूर मन्दिर से आ रहा शंखनाद और घण्टी का स्वर शायद यही बयां कर रहा था -


"जाको राखे साईंया मार सकै ना कोय !
      बाल न बाँका करि सकै जो जग बैरी होय !!"


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