जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करे सब कोई(डा0 एस के कुलश्रेष्ठ) एक मन्दिर था। उसमें सभी लोग पगार पर थे। आरती वाला, पूजा कराने वाला आदमी, घण्टा बजाने वाला भी पगार पर था। घण्टा बजाने वाला आदमी आरती के समय, भाव के साथ इतना मस्त हो जाता था कि होश में ही नहीं रहता था। घण्टा बजाने वाला व्यक्ति पूरे भक्ति भाव से स्वयं का काम करता था। मन्दिर में आने वाले सभी व्यक्ति भगवान के साथ-साथ घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के भाव के भी दर्शन करते थे। उसकी भी वाह-वाह होती थी। एक दिन मन्दिर का ट्रस्ट बदल गया और नये ट्रस्टी ने ऐसा आदेश जारी किया कि अपने मन्दिर में *काम करते सब लोगों का पढ़े लिखे होना आवश्यक है। जो पढ़े लिखें नही है, उन्हें निकाल दिया जाएगा।* उस घण्टा बजाने वाले भाई को ट्रस्टी ने कहा कि, 'तुम आज तक का पगार ले लो। कल से तुम नौकरी पर मत आना।' उस घण्टा बजाने वाले व्यक्ति ने कहा, "साहेब भले मैं पढ़ा लिखा नही हूं परन्तु इस कार्य में मेरा भाव भगवान से जुड़ा हुआ है, देखो!" ट्रस्टी ने कहा, "सुन लो तुम पढ़े लिखे नही हो इसलिए तुम्हे रखा नहीं जाएगा।" दूसरे दिन मन्दिर में नये लोगो को रखा गया परन्तु आरती में आये लोगों को अब पहले जैसा मजा नहीं आता था। घण्टा बजाने वाले व्यक्ति की सभी को कमी महसूस होती थी। कुछ लोग मिलकर घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के घर गए और विनती की कि, "तुम मन्दिर आओ।" उस भाई ने उत्तर दिया, "मैं आऊंगा तो ट्रस्टी को लगेगा कि मैं नौकरी लेने के लिए आया हूं इसलिए मैं नहीं आ सकता।" वहां आये हुए लोगो ने एक उपाय बताया कि "मन्दिर के सामने आपके लिए एक दुकान खोल कर देते हैं। वहाँ आपको बैठना है और आरती के समय घण्टा बजाने आ जाना फिर कोई नहीं कहेगा तुमको नौकरी की आवश्यकता है।" उस भाई ने मन्दिर के सामने दुकान शुरू की और वो इतनी चली कि एक दुकान से सात दुकान और सात दुकानों से एक फैक्ट्री खोली। अब वो आदमी मर्सिडीज़ से घण्टा बजाने आता था। समय बीतता गया। ये बात पुरानी सी हो गयी। मन्दिर का ट्रस्टी फिर बदल गया। नये ट्रस्ट को नया मन्दिर बनाने के लिए दान की आवश्यकता थी। मन्दिर के नये ट्रस्टी को विचार आया कि सबसे पहले उस फैक्ट्री के मालिक से बात करके देखते हैं‌। ट्रस्टी मालिक के पास गया। सात लाख का खर्चा है, फैक्ट्री मालिक को बताया। फैक्ट्री के मालिक ने कोई सवाल किये बिना एक खाली चेक ट्रस्टी के हाथ में दे दिया और कहा - "चैक भर लो!" ट्रस्टी ने चैक भरकर उस फैक्ट्री मालिक को वापिस दिया। फैक्ट्री मालिक ने चैक को देखा और उस ट्रस्टी को दे दिया। ट्रस्टी ने चैक हाथ में लिया और कहा - "सिग्नेचर तो बाकी है।" मालिक ने कहा - "मुझे सिग्नेचर करना नंही आता है। लाओ! *अंगुठा मार देता हूं,* "वही चलेगा।" *ये सुनकर ट्रस्टी चौंक गया और कहा* - "साहेब तुमने अनपढ़ होकर भी इतनी तरक्की की, यदि पढे लिखे होते तो कहाँ होते!" वह सेठ हँसते हुए बोला, *"भाई, मैं पढ़ा लिखा होता तो बस मन्दिर में घण्टा बजा रहा होता!"* *सारांश* कार्य कोई भी हो, परिस्थिति कैसी भी हो, आपकी *योग्यता* आपकी *भावनाओं* पर निर्भर करती है। भावनायें *शुद्ध* होंगी, *कर्म* सत्यमार्ग पर होगा तो *ईश्वर* और *सुंदर भविष्य* पक्का आपका साथ देगा। मन उज्ज्वल रखें, ईश्वर सदैव साथ रहेगा। राधे-राधे।


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