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7 अक्टूबर/पुण्यतिथि *श्री गुरु गोविंद सिंह*: खालसा पंथ के संस्थापक, सिक्ख धर्म दशम गुरु, त्याग और वीरता की प्रतिमूर्ति, महान स्वतंत्रता सेनानी और कवि गुरु गोविंद सिंह ने अन्याय से लोहा लेने की सीख दी और आत्मिक व सांसारिक रूप से शुद्ध जीवन के मार्ग पर चलने की विधि बताई। गुरु गोविंद सिंह का जन्म पौष शुक्ल पक्ष सप्तमी सन 1666 ई. पटना, बिहार में हुआ था। जिस समय गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना बिहार में हुआ, उस समय उनके पिता गुरु तेग बहादुर जी ढाका में लोगों को उपदेश दे रहे थे। गुरु गोविंद सिंह जी के आरंभिक पांच वर्ष पटना साहिब में ही व्यतीत हुए, बाद में तेग बहादुर ने अपने परिवार को आनंदपुर साहिब बुलवा लिया। गोविंद सिंह को विभिन्न विषयों-संस्कृत, फारसी के अध्ययन के साथ ही शस्त्र विद्या, घुड़सवारी आदि की शिक्षा भी दी गई। नौ वर्ष की आयु में गुरु गद्दी पर बैठने के बाद गुरु गोविंद सिंह ने सबसे पहले सिखों को सुशिक्षित करने का कार्य किया, उन्होंने न सिर्फ संस्कृत सीखने के लिए सिखों को वाराणसी भेजा, बल्कि अनेक धर्म ग्रंथों का पंजाबी में अनुवाद भी कराया। वे स्वयं कलम के धनी थे। उन्होंने कई अमर कृतियों की रचना की। ईश्वर की स्तुति में उनकी वाणीच्जापु साहिब अद्वितीय है, जिसमें ईश्वर के विभिन्न रूपों की वंदना की गई है। गुरु साहिब ने संवत 1756 की बैसाखी के दिन खालसा पंथ का सृजन किया, इस दिन बलिदान के आह्वान पर खरे उतरे पांच सिखों को उन्होंने पांच ककारों से सुसज्जित कर उन्हें अमृतपान कराया जो पंच प्यारे कहलाए। उन्होंने जाति, वर्ण, समुदाय के भेद समाप्त कर दिए। सिख संप्रदाय की स्थापना का उद्देश्य मुख्य रूप से हिन्दुओं की रक्षा करना था, इस संप्रदाय ने भारत को कई अहम मौकों पर मुगलों और अंग्रेजों से बचाया है। गुरु गोविंद साहब को सिखों का अहम गुरु माना जाता है, उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनकी बहादुरी थी, उनके लिए यह शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं “सवा लाख से एक लड़ाऊँ।” उनके अनुसार शक्ति और वीरता के संदर्भ में उनका एक सिख सवा लाख लोगों के बराबर है। जब सन 1675 में श्री गुरु तेगबहादुर जी दिल्ली में हिंन्दु धर्म की रक्षा के लिए बलिदान हुए तब गुरु गोविंद साहब जी गुरु गद्दी पर विराजमान हुए, गुरु गोविंद सिंह जी ने ही सन 1699 ई. में खालसा पंथ की स्थापना की। ख़ालसा यानि ख़ालिस शुद्ध जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। पांच प्यारे बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं - "जहां पाँच सिख इकट्ठे होंगे, वहीं मैं निवास करूंगा।" उन्होंने सभी जातियों के भेद-भाव को समाप्त करके समानता स्थापित की और उनमें आत्म-सम्मान की भावना भी पैदा की। गोबिंद सिंह जी ने एक नया नारा दिया था - "वाहे गुरु जी का ख़ालसा, वाहे गुरु जी की फतेह।" दमदमा साहिब में आपने अपनी याद शक्ति और ब्रह्मबल से श्री गुरुग्रंथ साहिब का उच्चारण किया और लेखक भाई मनी सिंह जी ने गुरुबाणी को लिखा। युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पांच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है - 1. केश - जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे। 2. कंघा - केशों को साफ करने के लिए लकड़ी का कंघा 3. कच्छा - स्फूर्ति के लिए। 4. कड़ा - नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए। 5. कृपाण - आत्मरक्षा के लिए। गुरु गोविंद सिंह ने अपनी जिंदगी में वह सब देखा था, जिसे देखने के बाद शायद एक आम मनुष्य अपने मार्ग से भटक या डगमगा जाए लेकिन उनके साथ ऐसा नहीं हुआ। परदादा गुरु अर्जुनदेव का बलिदान, दादा गुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर का बलिदान, चार में से बड़े दो पुत्रों साहिबजादा अजीत सिंह एवं साहिबजादा जुझार सिंह का चमकौर के युद्ध में बलिदान होना और छोटे दो पुत्रों साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं, इस सारे घटनाक्रम में भी अड़िग रहकर गुरु गोबिंद सिंह संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है। गुरु गोविंद सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकर अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और "गुरुग्रन्थ साहिब" ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। श्री गुरु गोविंद सिंह का देहावसान 7 अक्टूबर सन् 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुआ। आज के समय गुरु गोविंद सिंह का जीवन चरित्र हमारे लिए बेहद प्रासंगिक है, आज उनकी शिक्षाएं हमारे जीवन को एक आदर्श मार्ग पर ले जाने में अति सहायक साबित हो सकती हैं। #
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