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नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्टूबर,1916 को महाराष्ट्र के छोटे से गाँव में हुआ था. नानाजी जब पैदा हुए तब उनका नाम चंडिकादास अमृतदास देशमुख था. नानाजी गरीब मराठी ब्राह्मण परिवार से थे. बचपन से उन्होंने गरीबी को देखा था, उनके परिवार को रोज के खाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी. नानाजी का बचपन संघर्ष से भरा हुआ था. परिवार (Family) – नानाजी देशमुख के माता-पिता उन्हें कम उम्र में ही छोड़ कर स्वर्गवासी हो गए थे. आगे नानाजी की देखरेख उनके मामा ने की थी. नानाजी किसी पर बोझ नहीं बनना चाहते थे, जिस वजह से वे खुद पैसे कमाने के लिए मेहनत करते थे. बचपन में उन्होंने सब्जी बेचने का भी काम किया था. नानाजी पैसे कमाने के लिए अपने घर से भी निकल जाया करते थे, फिर उन्हें जहाँ सहारा मिलता वही रह जाते थे. नानाजी ने तो कुछ समय मंदिर में भी रहकर गुजारा था. शिक्षा (Education) – नानाजी को पढ़ने का बहुत शौक था. पैसों की कमी के बावजूद नानाजी की यह इच्छा कम नहीं हुई थी. नानाजी ने खुद मेहनत करके, यहाँ-वहां से पैसे जुटाए और अपनी शिक्षा को जारी रखा था. नानाजी ने हाई स्कूल की पढाई राजस्थान के सिकर जिले से की थी, यहाँ उनको पढाई के लिए छात्रवृत्ति भी मिली थी. इसी समय नानाजी की मुलाकात डॉक्टर हेडगेवार से हुई, जो स्वयंसेवक संघ के संस्थापक भी थे. इन्होने नानाजी को संघ में शामिल होने के लिए प्रेरित किया, और रोजाना शाखा में आने का निमंत्रण भी दिया था. इसके बाद डॉक्टर हेडगेवार ने नानाजी को आगे कॉलेज की पढाई के लिए बिरला कॉलेज में जाने के लिए कहा. उस समय नानाजी के पास इतने पैसे नहीं थे, कि वे इस कॉलेज में दाखिला ले सकें. हेडगेवार जी ने उनको पैसों की मदद भी करनी चाही, लेकिन स्वाभिमानी नानाजी ने आदरपूर्ण तरीके से उन्हें इंकार कर दिया. इसके बाद नानाजी ने कुछ साल खुद मेहनत की और पैसे जमा किये. 1937 में नानाजी ने बिरला कॉलेज में दाखिला ले लिया. इसी दौरान नानाजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) को भी ज्वाइन किया और वे इससे जुड़े कार्यों में भी पूर्ण रूप से सक्रीय थे. 1939 में नानाजी ने संघ शिक्षा के लिए 1 साल का कोर्स किया। नानाजी अपना आदर्श लोकमान्य तिलक जी को मानते थे, वे उनकी राष्ट्रीय विचारधारा से अत्यधिक प्रभावित थे. 1940 के दौरान बहुत से युवा मुख्यरूप से महाराष्ट्र में नानाजी से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो रहे थे. नानाजी ने सभों को देश सेवा के लिए अपने आप को समर्पित करने के लिए प्रेरित किया था. 1940 में नानाजी ने हेडगेवार जी की मृत्यु के बाद उत्तर प्रदेश का रुख किया. आगरा, गोरखपुर में उन्होंने प्रचारक के रूप में कार्य किया. यहाँ उनको संघ की विचारधारा को आम जनता तक पहुँचाने के लिए बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था. उनके पास रोज के खर्चे के लिए भी पैसे नहीं हुआ करते थे, जहाँ वे रुकते थे, उन्हें तीन दिन बाद वहां से निकलने को कह दिया जाता था. कुछ समय बाद नानाजी ने एक बाबा के आश्रम में शरण ली, जहाँ उन्हें रहने तो मिला, लेकिन आश्रम के काम नानाजी ही करते थे, वे वहां खाना भी बनाया करते थे. 1943 तक नानाजी ने कड़ी मेहनत की, जिसका नतीजा यह रहा कि यूपी में 250 संघ शाखा बन गई थी. उत्तर प्रदेश में संघ के कार्य के दौरान ही नानाजी की मुलाकात राष्ट्रवादी विचारधारा रखने वाले महान नेता दीनदयाल उपाध्याय से हुई थी. 1947 में देश की आजादी के बाद आरएसएस ने भारत देश की आम जनता के बीच राष्ट्र की सही जानकारी पहुँचाने के लिए अपनी खुद की पत्रिका और समाचार पत्र प्रकाशित करने का विचार किया. उस समय संघ में दीनदयाल उपाध्याय जी के अलावा, अटल बिहारी बाजपेयी जैसे महान नेता भी उससे जुड़े हुए थे. संघ के उच्च अधिकारीयों ने संपादक का पद अटल जी को सौंपा. पुरे प्रबंध को देखने के लिए नानाजी के साथ दीनदयाल जी को चुना गया. पत्रिकाओं के नाम राष्ट्रधर्मं एवं पांचजन्य था, जबकि समाचार पत्र स्वदेश नाम से प्रकाशित हुआ था. संघ को उस समय पैसों की बहुत तंगी थी, फिर भी किसी तरह प्रकाशन का कार्य पूरा किया रहा था. पत्रिका एवं समाचार पत्र के विषय बहुत मजबूत थे, राष्ट्रवादी सोच को बखूबी प्रस्तुत किया जा रहा था, जिसे भारत देश की जनता पसंद कर रही थी. कुछ ही समय में यह समाचार पत्र ने लोकप्रियता हासिल कर ली थी. इसी दौरान 1948 में गाँधी जी की हत्या कर दी गई थी. गाँधी जी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को आरएसएस का आदमी कहा जा रहा था. जिसके चलते संघ के सभी कार्यों में प्रतिबंध लगा दिया गया था. नानाजी ने अपनी सूझ-बूझ से इसका तोड़ निकाला था, और प्रकाशन का कार्य जारी रखा था, ताकि आम जनता तक राष्ट्र से जुडी बातें पहुँच सकें. 1950 के आते-आते आरएसएस से प्रतिबंध हट गया था, जिसके बाद संघ के लोगों ने भारतीय कांग्रेस के सामने खुद की पार्टी खड़ी करने का विचार किया. 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने संघ के साथ मिल कर भारतीय जन संघ की स्थापना की थी. यही आगे चलकर देश की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी बनी. उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रचारक के लिए नानाजी को चुना गया था. वे वहां महासचिव के रूप में कार्यरत थे. 1957 तक नानाजी ने यूपी के हर जिले में जाकर पार्टी का प्रचार किया. लोगों को पार्टी से जुड़ने का आग्रह किया, जिसके फलस्वरूप पुरे प्रदेश के हर जिले में पार्टी की इकाई खुल गई थी. उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ (BJS) एक बड़ी राजनैतिक पार्टी बनकर उभरी थी. उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चन्द्र भानु गुप्ता को प्रदेश के राजनैतिक युद्ध में देशमुख जी के नेतृत्व में बीजेएस से एक, दो नहीं बल्कि तीन बार बड़ी टक्कर दी थी. यह उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली बार था, जब कोई पार्टी कांग्रेस के सामने इतने बड़े रूप में खड़ी हो सकी थी. भारतीय जन संघ को यूपी में लोकप्रियता दिलाने का श्रेय अटल बिहारी बाजपेयी जी, दीनदयाल उपाध्याय जी एवं नानाजी को जाता है. तीनों की कड़ी मेहनत, दृष्टिकोण, कौशल से भारत की राजनीति में यह बड़ा फेरबदल हुआ था. नानाजी बहुत ही शांत और नम्र किस्म के इन्सान थे, वे सभी से बड़ी नम्रता से बात करते थे, फिर चाहे वो उनकी पार्टी का मेम्बर हो या विपक्ष का कोई इन्सान. यही वजह थी कि दूसरी पार्टी के लोग भी नानाजी के साथ बहुत ही आदर के साथ व्यवहार करते थे. नानाजी देशमुख ने विनोबा भावे द्वारा शुरू किये गए भू दान आन्दोलन में भी बढचढ कर हिस्सा लिया था. इंदिरा गाँधी जी की के समय जब देश में आपातकाल चल रहा था, तब देश की राजनीति में भी बहुत उठक पटक हुई थी. देशमुख जी ने इस दौरान अपनी समझ और हिम्मत का परिचय दिया था, जिसकी तारीफ़ बाद में बीजेएस के प्रधानमंत्री बने मुरारजी देसाई ने भी की थी. 1977 में नानाजी यूपी के बलरामपुर लोकसभा क्षेत्र से बीजेएस पार्टी की तरफ से चुनाव में उतरे थे, जहाँ एक बड़े मार्जिन के साथ उनको जीत हासिल हुई थी. 1980 में नानाजी ने राजनीति छोड़ कर सामाजिक और रचनात्मक कार्यों को करने का फैसला किया. इससे उनके चाहने वालों को बहुत दुःख हुआ था, लेकिन सभी ने उनके फैसले का सम्मान किया था. जब जनता पार्टी का गठन हुआ था, देशमुख इसके मुख्य वास्तुकारों में से एक थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ उन्होंने पार्टी के लिए रुपरेखा बनाई थी. कुछ ही सालों में आगे चलकर यही जनता पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से हटाकर, खुद देश की सरकार बना। राजनीति से सन्यास लेने के बाद नानाजी ने 1969 में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की थी, उनका उद्देश्य था कि यह संस्थान भारत को मजबूत बनाने के लिए कार्यरत रहे. राजनीति के बाद नानाजी ने अपना समय इसके निर्माण कार्य में ही लगा दिया था. नानाजी ने ग्राम में कृषि क्षेत्र को बढ़ाने, उससे जुडी सारी सुख सुविधाएँ को पहुँचाने के लिए कार्य किया था. गाँव में कुटीर उद्योग को बढ़ाने के लिए, वे ग्रामवासी को हमेशा सही शिक्षा दिया करते थे. इसके अलावा गाँव का पूरा विकास, लोगों की रोजमर्रा की जरूरतें जैसे ग्रामीण स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, सड़क, पानी आदि के लिए भी बहुत मेहनत की थी. नानाजी ने मुख्यरूप से उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के लगभग 500 गाँव में बड़े-बड़े विकास कार्य किये थे. पहली बार जब नानाजी इस जगह पर गए, तो उन्हें वो बेहद अच्छी लगी, जिसके बाद उन्होंने अपने आगे के जीवन को यही बिताने का फैसला लिया था. 1969 में नानाजी ने रामभूमि चित्रकूट के विकास कार्य को करने का दृढ संकल्प ले लिया. उस समय चित्र्कूफ़ की हालात अच्छे नहीं थे, विकास के नाम पर राम की कर्मभूमि पर कुछ भी नहीं हुआ था. रामजी जब अपने वनवास काल में थे, तो उन्होंने 14 में से 12 साल इसी जगह में व्यतीत किये थे, उसी समय से उन्होंने दलितों के विकास के लिए काम शुरू किया था. नानाजी ने भी इस कार्य को आगे बढ़ाने का सोचा और चित्रकूट को अपने सामाजिक कार्यों का केंद्र बना दिया था. नानाजी ने गरीब से गरीब वर्ग को ऊँचा उठाने के लिए कार्य किये थे, वे समाज के पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए कार्यरत थे. भारत देश के प्रथम ग्रामीण विश्वविद्यालय की स्थापना चित्रकूट में नानाजी के द्वारा हुई थी. वे इस विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी थे. नानाजी देशमुख ने मंथन नाम की पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया था. नानाजी ने भारत देश में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बहुत से कार्य किये थे. वे शिक्षा को देश के विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे. देश में सभी को आसानी से शिक्षा मिल सके, इसके लिए उन्होंने 1950 में उत्तरप्रदेश देश का पहले स्वरस्वती शिशु मंदिर विद्यालय की स्थापना की। सन 2010 में 93 साल की उम्र में नानाजी का निधन चित्रकूट के उन्ही के द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय में हुआ था. नानाजी लम्बे समय से बीमार थे, लेकिन वे इलाज के लिए चित्रकूट छोड़कर नहीं जाना चाहते थे. नानाजी ने मरने से पहले ही निर्णय ले लिया था, कि वो अपना देह दान करेंगें. उन्होंने दधीचि देहदान संस्थान को अपना शरीर दान दे दिया था. मरने के बाद उनके शरीर को अनुसन्धान के लिए वहीँ पहुंचा दिया गया. नानाजी को 1999 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था. इसके 20 साल बाद 2019 में नानाजी को भारत रत्न देने का फैसला लिया गया. भारत देश के विकास में नानाजी का बहुत योगदान है, गाँव में विकास को महत्ता उन्ही ने लोगों को बताई. ऐसे महान हस्ती को हम प्रणाम करते है. (शिक्षाविद, वरिष्ठ पत्रकार श्री रजनीकांत शुक्ला जी की कलम से साभार)
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