संतोषी सदा सुखी (डा0 एस के कुलश्रेष्ठ) एक संत को अपना भव्य आश्रम बनाने के लिए धन की जरूरत पड़ी। वह अपने शिष्य को साथ लेकर धन जुटाने के लिए लोगों के पास गए। घूमते-घूमते वह एक गांव में अपनी शिष्या एक बुढ़िया की कुटिया में पहुंचे। कुटिया बहुत साधारण थी। वहां किसी तरह की सुविधा नहीं थी फिर भी रात हो गई तो संत वहीं ठहर गए। बूढ़ी मां ने उनके लिए खाना बनाया। खाने के बाद संत के सोने के लिए मां ने एक तख्त पर दरी बिछा दी और तकिया दे दिया। खुद वह जमीन पर एक टाट बिछाकर सो गईं। थोड़ी ही देर में वह गहरी नींद सो गईं लेकिन संत को नींद नहीं आ रही थी। वह दरी पर सोने के आदी नहीं थे। अपने आश्रम में सदा मोटे गद्दे पर सोते थे। संत सोचने लगे कि जमीन पर टाट बिछा कर सोने के बावजूद इस को गहरी नींद आ गई और मुझे तख्त पर दरी के बिछोने पर भी नींद क्यों नहीं आई। मैं तो संत हूँ, सैंकड़ों का मार्गदर्शन करता हूं और यह एक साधारण दरिद्र बुढ़िया। यह बात उन्हें देर तक मथती रही। सोचने लगे, एक दिन यहीं रुकता हूं, देखता हूं कि यह ऐसा कौनसा मंत्र जानती है कि ऐसी अवस्था में भी प्रसन्न है, चैन से सोती है। सुबह जल्दी उठकर बूढ़ी मां ने अपने हाथ से कुटिया की सफाई की और चिडिय़ों को दाना खिलाया। गाय को चारा दिया। फिर सूर्य को जल अर्पण किया, पौधों को सींचा। गुरु को प्रणाम किया और कुछ देर बैठ कर भगवान नाम का स्मरण। आंगन से तरक़ारी तोड़ कर भोजन पकाया। गुरु को प्रथम भोजन करवा कर आप ग्रहण किया। दिन में आस पड़ोस की बच्चियों को बुला कर उन्हें हरि कथा सुनाई, हरि भजन का ज्ञान दिया। फिर संध्या पूजन, रात को पुन: सादे भोजन का प्रबंध। सोने की तैयारी। गुरु सोचने लगे आज फिर नींद नहीं आयेगी। पूछ ही लूं कि क्या रहस्य है। संत ने पूछा, ‘‘मां, तुमने मेरे लिए अच्छा बिछोना बिछाया। फिर भी मुझे नींद नहीं आई जबकि तुम्हें जमीन पर गहरी नींद आ गई। क्या तुम्हें धरती की कठोरता नहीं सताती? क्या यह चिंता नहीं होती कि कैसे अपने लिये अच्छे भोजन का, नरम बिछड़ने का प्रबंध करूं? इसका कारण क्या है?’’ वह बोलीं, ‘‘गुरुदेव जब मैं सोती हूं तो मुझे पता नहीं होता कि मेरी पीठ के नीचे गद्दा है या टाट। उस समय मुझे आपके वचन अनुसार दिन भर किए गए सत्कर्मों का स्मरण करके ऐसा अद्भुत आनंद मिलता है कि मैं सुख-दुख सब भूल कर परम पिता की गोद में सो जाती हूं इसलिए मुझे गहरी नींद आती है।’’ संत ने कहा, ‘‘मैं अपने सुख के लिए धन एकत्रित करने निकला था। यहां आकर मुझे मालूम हुआ कि सच्चा सुख भव्य आश्रम में नहीं बल्कि संतोष में है, दरिद्र की इस कुटिया में है।’ *जय भोलेनाथ*


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