श्री गुरूवः नमः (अजय भाई साहब जी की वाल से साभार)



 *पराजय*

    जिला शिक्षा अधिकारी बनने के बाद जब ज्वाइन किया..तो जानकारी हुई की ये जिला ..स्कूली शिक्षा के लिहाज से बहुत पिछड़ा हुआ हैं...वरिष्ठ अधिकारियों ने भी कहा आप ग्रामीण इलाकों पर विशेष ध्यान दें..

    बस तय कर लिया..महीने में आठ दस दिन जरूर ग्रामीण स्कूलों को दूंगा..

        शीघ्र ही..ग्रामीण इलाकों में दौरों का सिलसिला चल निकला..पहाड़ी व जंगली इलाका भी था कुछ..

    एक दिन मातहत कर्मचारियों से मालूम हुआ..

  "बड़ेरी " नामक गांव, जो एक पहाड़ी पर स्थित है..वहां के स्कूल में कोई शिक्षा अधिकारी नहीं जाता था क्योंकि वहां पहुंचने के लिए.. वाहन छोड़कर..लगभग दो तीन किलोमीटर जंगली रास्ते से पैदल ही जाना होता था ..

       तय कर लिया अगले दिन वहां जाया जाए..

वहां कोई ,मिस्टर  पी. के. व्यास हेड मास्टर थे.. जो बरसों से, पता नहीं क्यूं.. वहीं जमे हुए थे..! मैंने निर्देश दिए उन्हें कोई अग्रिम सूचना न दी जाय..सरप्राइज विजिट होगी..!

   अगले दिन हम सुबह निकले.. दोपहर बारह बजे..ड्राइवर ने कहा साहब यहां से आगे..पहाड़ी पर पैदल ही जाना होगा दो तीन किलोमीटर..

      मै और दो अन्य कर्मचारी पैदल ही चल पड़े..

लगभग डेढ़ घंटे सकरे..पथरीले जंगली रास्ते से होकर हम ऊपर गांव तक पहुंचे..सामने स्कूल का पक्का भवन था..और लगभग दो  सौ कच्चे पक्के मकान थे..

    स्कूल साफ सुथरा और व्यवस्थित रंगा पुता हुआ था..बस तीन कमरे और प्रशस्त बरामदा..चारों तरफ सुरम्य हरा भरा वन..

      अंदर क्लास रूम में पहुंचे तो तीन कक्षाओं में लगभग सवा सौ बच्चे तल्लीनता पूर्वक पढ़ रहे थे.. हालांकि शिक्षक कोई भी नहीं था..एक बुजुर्ग सज्जन बरामदे में थे जो वहां नियुक्त पियून थे.शायद...

     उन्होंने बताया हेड मास्टर साहब आते ही होंगे..

 हम बरामदे में बैठ गए थे..तभी देखा एक चालीस बयालीस वर्ष के सज्जन..अपने दोनो हाथो में पानी की बाल्टियां लिए ऊपर चले आ रहे थे..पायजामा घुटनों तक चढ़ाया हुआ था..ऊपर खादी का कुर्ता जैसा था..!

      उन्होंने आते ही परिचय दिया.. मैं प्रशांत व्यास यहां हेड मास्टर हूं..। यहां इन दिनों ..बच्चों के लिए पानी, थोड़ा नीचे जाकर कुंए से लाना होता है..हमारे चपरासी दादा..बुजुर्ग हैं अब उनसे नहीं होता..इसलिए मै ही लेे आता हूं..वर्जिश भी हो जाती है..वे मुस्कुराकर बोले..

   उनका चेहरा पहचाना सा लगा और नाम भी..

मैंने उनकी और देखकर पूछा..तुम प्रशांत व्यास हो..इंदौर से.. गुजराती कॉलेज..!

      मैंने हेट उतार दिया था.. उसने कुछ पहचानते हुए .. चहकते हुए कहा..आप अभिनव.. हैं, अभिनव श्रीवास्तव..! मैंने कहा और नहीं तो क्या.. भई..!

       लगभग बीस बाईस बरस पहले हम इंदौर में साथ ही पढ़े थे..बेहद होशियार और पढ़ाकू था  वो..बहुत कोशिश करने के बावजूद शायद ही कभी उससे ज्यादा नंबर आए हों.. मेरे..!

         एक प्रतिस्पर्धा रहती थी हमारे बीच..जिसमें हमेशा वही जीता करता था..

      आज वो हेड मास्टर था और मैं..जिला शिक्षा अधिकारी.. पहली बार उससे आगे निकलने.. जीतने.. का भाव था.. और सच कहूं तो खुशी थी मन में..

       मैंने सहज होते हुए पूछा.. यहां कैसे पहुंचे.. भई..?. और कौन कौन है घर पर..? 

             उसने विस्तार से बताना शुरू किया..

  “ एम. कॉम करते समय ही बाबूजी की मालवा मिल वाली नौकरी जाती रही थी..फिर उन्हें दमे की बीमारी भी तो थी..! ..घर चलाना मुश्किल हो गया था..किसी तरह पढ़ाई पूरी की.. नम्बर अच्छे  थे.. इसलिए संविदा शिक्षक की नियुक्ति मिल गई थी..जो छोड़ नहीं सकता था..आगे पढ़ने की न गुंजाइश थी न स्थितियां..इस गांव में पोस्टिंग मिल गई..मां बाबूजी को  लेकर यहां चला आया..सोचा गांव में कम पैसों में गुजारा हो ही जायेगा..!"

       फिर उसने हंसते हुए कहा.. “इस दुर्गम गांव में पोस्टिंग..और वृद्ध.. बीमार मां बाप को देख..कोई लड़की वाले लड़की देने तैयार नहीं हुए..इसलिए विवाह नहीं हुआ..और ठीक भी है.. कोई पढ़ी लिखी लड़की  भला यहां क्या करती..! 

         अपनी कोई पहुंच या पकड़ भी नहीं थी कि यहां से ट्रांसफर करा पाते..तो बस यहीं जम गए..यहां आने के कुछ बरस बाद..मां बाबूजी दोनों ही चल बसे..

  यथा संभव उनकी सेवा करने का प्रयास किया..

अब यहां बच्चों में..स्कूल में मन रम गया है..

  छुट्टी के दिन बच्चों को लेकर.. आस पास की पहाड़ियों पर वृक्षारोपण करने चला जाता हूं...

.. ..रोज शाम को स्कूल के बरामदे में बुजुर्गों को पढ़ा देता हूं..अब शायद इस गांव में कोई निरक्षर नहीं है..नशा मुक्ति का अभियान भी चला रक्खा है..अपने हाथों से खाना बना लेता हूं..और किताबें पढ़ता हूं.. बच्चों को अच्छी बुनियादी शिक्षा.. अच्छे संस्कार मिल जाएं..अनुशासन सीखें बस यही ध्येय है.. मै सी ए नहीं कर सका पर मेरे दो विद्यार्थी सी ए हैं..और कुछ अच्छी नौकरी में भी..।

     .. मेरा यहां कोई ज्यादा खर्च है नहीं.. मेरी ज्यादातर तनख़ा इन बच्चों के खेल कूद और स्कूल पर खर्च हो जाती हैं...तुम तो जानते हो कॉलेज के जमाने से क्रिकेट खेलने का जुनून था..! वो बच्चों के साथ खेल कर पूरा हो जाता है..बड़ा सुकून मिलता है.."

      मैंने टोकते हुए कहा...मां बाबूजी के बाद शादी का विचार नहीं आया..?

   उसने मुस्कुराते हुए कहा..“ दुनियां में सारी अच्छी चीजें मेरे लिये नहीं बनी है..

   इसलिए जो सामने है..उसी को अच्छा करने या बनाने की कोशिश कर रहा हूं.."

    फिर अपने परिचित दिलचस्प अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोला.“.अरे वो फ़ैज़ साहेब की एक नज़्म में है न..! .."अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो..अब यहां कोई नहीं..कोई नहीं आएगा.."

      उसकी उस बेलौस हंसी ने भीतर तक भिगो दिया था..

    लौटते हुए मैंने उससे कहा..प्रशांत तुम जब चाहो तुम्हारा ट्रांसफर मुख्यालय या जहां तुम चाहो करा दूंगा..

      उसने मुस्कुराते हुए कहां..अब बहुत देर हो चुकी है.जनाब.. अब यहीं इन लोगों के बीच खुश हूं..कहकर उसने हाथ जोड़ दिए..

      मेरी अपनी उपलब्धियों से उपजा दर्प..उससे आगे निकल जाने का अहसास..भरम.. चूर चूर हो गया था..

    वो अपनी जिंदगी की तमाम कमियों.. तकलीफों..असुविधाओं के बावजूद सहज था. उसकी कर्तव्यनिष्ठा देखकर.. मै हतप्रभ था ..जिंदगी से..किसी शिकवे या.. शिकायत की कोई झलक उसके व्यवहार में...नहीं थी..

    सुखसुविधाओं..उपलब्धियों.. ओहदों के आधार पर हम लोगों का मूल्यांकन करते हैं..लेकिन वो इन सब के बिना मुझे फिर पराजित कर गया था..!

  लौटते समय उस कर्म ऋषि को हाथ जोड़कर..भरे मन से इतना ही कह सका..तुम्हारे इस पुनीत कार्य में कभी मेरी जरूरत पड़े तो जरूर याद करना मित्र..

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