काव्य धारा

 प्राण हो तुम....!


क्यो हो तुम ऐसी

कभी बुझी राख में

 अंगार पैदा करती हो

कभी रोशन चराग को बुझा देती हो

माना ताकत हो तुम

पर इतना मत गरूर करो

कहते है लगती सबको है

किसे मीठा किसे  खट्टा

अनुभव करा दो तुम

जानता हूँ समझता भी खूब हूँ

जिसे तुम लग गयी..

उसे फर्श से अर्श कर दोगी

सुना है दीवाना भी बना देती हो तुम

कहते है जिसे लग गई 

वो उड़ने लगता है..

मदमस्त हो जाता है

.मन्द मन्द भीनी भीनी

खुशबू बिखेर चलो तुम

न बनो कभी आंधी

 उजाड़ दो कहीं चमन को ही तुम

 सुनो...

आंधी बनोगी तो

बिखर जाएगा पत्ता पत्ता

फिर न देखोगी तुम 

की हरे कितने थे पीले कितने

उजाड़ दोगी सब कुछ

चरागों को रोशन रखना

उन्हें भी है जरूरत तुम्हारी

तुम्हारे बगैर वो भी न हो सकेंगे रोशन

मेरे जीवन में आती हो 

खुशबू बिखेर जाती हो...

अच्छी लगती हो..

बस...आना होले होले...

चलना होले होले... हवा हो तुम...

आंधी नही...

प्राण वायु हो तुम....


विजयेंद्र पालीवाल


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