क्रांतिकारी बटूकेश्वर दत्त की पुण्यतिथि पर विशेष




बटुकेश्वर दत्त !

नाम याद है या भूल गए ??

हाँ, ये वही बटुकेश्वर दत्त हैं जिन्होंने भगतसिंह के साथ दिल्ली असेंबली में बम फेंका था और गिरफ़्तारी दी थी।

अपने भगत  पर तो जुर्म संगीन थे लिहाज़ा उनको सजा-ए-मौत दी गयी पर बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास के लिए काला पानी (अंडमान निकोबार) भेज दिया गया और मौत उनको करीब से छू कर गुज़र गयी।  वहाँ जेल में भयंकर टी.बी. हो जाने से मौत फिर एक बार बटुकेश्वर पर हावी हुई लेकिन वहाँ भी वो मौत को गच्चा दे गए। कहते हैं जब भगतसिंह, राजगुरु सुखदेव को फाँसी होने की खबर जेल में बटुकेश्वर को मिली तो वो बहुत उदास हो गए।

इसलिए नहीं कि उनके दोस्तों को फाँसी की सज़ा हुई,,, बल्कि इसलिए कि उनको अफसोस था कि उन्हें ही क्यों ज़िंदा छोड़ दिया गया ! 

बहरहाल कई सालों तक ऐसे ही जेल की यातनाएं झेलते झेलते 1947 में देश आजाद होने पर बटुकेश्वर को रिहाई मिली। लेकिन इस वीर सपूत को वो दर्जा कभी ना मिला जो सरकार और भारतवासियों से इन्हें मिलना चाहिए था। 


आज़ाद भारत में बटुकेश्वर नौकरी के लिए दर-दर भटकने लगे। कभी सिगरेट बेची तो कभी टूरिस्ट गाइड का काम करके पेट पाला। कभी बिस्किट बनाने बेचने का काम शुरू किया लेकिन सब में असफल रहे।

 कहा जाता है कि एक बार पटना में बसों के लिए परमिट मिल रहे थे ! उसके लिए बटुकेश्वर दत्त ने भी आवेदन किया ! परमिट के लिए जब पटना के कमिश्नर के सामने इस 50 साल के अधेड़ की  पेशी हुई तो उनसे कहा गया कि वे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण पत्र लेकर आएं..!!!  भगत के क्रांतिकारी साथी की इतनी बड़ी बेइज़्ज़ती केवल भारत में ही संभव थी । 


स्वतन्त्रता संग्राम की बदौलत प्रधानमंत्री बने नेहरू-गाँधी परिवार को अपने इलावा कोई नाम, न कभी दिखाई दिया, ना सुनाई दिया । हालांकि बाद में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को जब यह बात पता चली तो कमिश्नर ने बटुकेश्वर से माफ़ी मांगी थी !


1963 में उन्हें विधान परिषद का सदस्य बना दिया गया । लेकिन इसके बाद वो राजनीति की चकाचौंध से दूर  गुमनामी में जीवन बिताते रहे । सरकार ने इनकी कोई सुध ना ली।

1964 में जीवन के अंतिम पड़ाव पर बटुकेश्वर दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में कैंसर से जूझ रहे थे तो उन्होंने अपने परिवार वालों से एक बात कही थी-

"कभी सोचा ना था कि जिस दिल्ली में मैंने बम फोड़ा था उसी दिल्ली में एक दिन इस हालत में स्ट्रेचर पर पड़ा होऊंगा।" 

इनकी दशा पर इनके मित्र चमनलाल ने एक लेख लिख कर देशवासियों का ध्यान इनकी ओर दिलाया कि-"किस तरह एक क्रांतिकारी  जो फांसी से बाल-बाल बच गया जिसने कितने वर्ष देश के लिए कारावास भोगा , वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।"

बताते हैं कि इस लेख के बाद सत्ता के गलियारों में थोड़ी हलचल हुई ! सरकार ने इन पर ध्यान देना शुरू किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 

भगतसिंह की माँ भी अंतिम वक़्त में उनसे मिलने पहुँची।

भगतसिंह की माँ से उन्होंने सिर्फ एक बात कही-"मेरी इच्छा है कि मेरा अंतिम संस्कार भगत की समाधि के पास ही किया जाए।उनकी हालत लगातार बिगड़ती गई.

17 जुलाई को वे कोमा में चले गये और 20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर 50 मिनट पर उनका देहांत हो गया !

भारत पाकिस्तान सीमा के पास पंजाब के हुसैनीवाला स्थान पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के साथ ये गुमनाम शख्स आज भी सोया हुआ है। 

मुझे लगता है भगत ने बटुकेश्वर से पूछा तो होगा- दोस्त मैं तो जीते जी आज़ाद भारत में सांस ले ना सका, तू बता आज़ादी के बाद हम क्रांतिकारियों की क्या शान है भारत में।"


भारत माँ की आजादी के लिये अपना सर्वश्व न्योछावर करने वाले माँ भारती के लाल को आजाद भारत में अपने को क्रांतिकारी होना साबित करना पड़े इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है, आज उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें पूण्य स्मरण करते हुए शत शत नमन🙏🏻

     हे कृतघ्न नेहरू  ,कांग्रेस यह भी तेरा एक बदनुमा चेहरा है,  शर्मिंदा हो ना, तेरा अपराध अक्षम्य है...

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