!!स्वतंत्रता आंदोलन का
प्रतीक-अगस्त क्रान्ति!!
भारत छोड़ो आंदोलन को 'अगस्त क्रांति' के नाम से भी जाना जाता है। इस आंदोलन का लक्ष्य भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को पूर्णतया समाप्त करना था। यह आंदोलन 9 अगस्त,1942 को महात्मा गांधी जी के आह्वान पर पूरे देश में एक साथ आरंभ हुआ था।
आज का दिन भारतीय इतिहास में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो’ के उदघोष के साथ आंदोलन के रूप में आजादी की अंतिम लड़ाई की घोषणा कर की थी। जिस कारण अंग्रेजी शासकों में दहशत फैल गई। चूंकि 9 अगस्त,1942 को इस आंदोलन की शुरुआत होने के कारण इस दिन को अगस्त क्रांति दिवस के रूप में जाना जाता है। नौ अगस्त भारत जन समुदाय की उस इच्छा की वह अभिव्यक्ति थी जिसमें भारतीय जन समुदाय ने यह मन बना लिया था कि हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेकर रहेंगे।
महात्मा गांधी ने इस अवसर पर कहा था कि ‘मैं तो एक ही चीज लेने जा रहा हूं-आजादी! आपको एक ही मंत्र देता हूं-करेंगे या मरेंगे। आजादी डरपोकों के लिए नहीं है। जिनमें कुछ कर गुजरने की ताकत है वही जिंदा रहते हैं।’ वास्तव में नौ अगस्त की एक और स्मृति भारतीय जनमानस में पहले से रही है, वह है लखनऊ के पास घटा काकोरी कांड। नौ अगस्त, 1925 को इस स्थान पर देशभक्तों ने रेल से ले जाई जा रही धनराशि को लूट लिया था। इस घटना के बाद कुछ क्रांतिकारियों को फांसी दी गई तो कुछ को आजीवन कारावास। इस बलिदान ने भी भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। सभी देशभक्तों के संघर्ष और भारतीय जनता की चेतना के कारण 15 अगस्त, 1947 को भारत को आजादी मिली। इस प्रकार नौ अगस्त,1942 को भारत की जनता ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने की चेतावनी दी थी 15 अगस्त,1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली। काकोरी काण्ड और अगस्त क्रान्ति भारतीय इतिहास की स्वाधीनता की सबसे चमकीली स्मृति-रेखाएं हैं।
वास्तव में स्वतंत्रता एक सृजनधर्मिता और एक सभ्यतामूलक विमर्श है। स्वतंत्रता का संसार लोकतंत्रीय है जिसमें बहुसांस्कृतिकता की ध्वनियां हैं। भौतिक तौर पर कोई पराधीन भी हो,परंतु आत्मिक आजादी ही मनुष्यता एवं नागरिकता का कारक है। हमारी पूरी सभ्यता और प्रगति हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर निर्भर है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ बहुवचनात्मकता है जिसमें अनेक धाराओं का सम्मान और उनकी बराबरी का सम्मान है।
आज अभिव्यक्ति की पराधीनता के मायने बदल गए हैं। भाषा,संस्कृति,सूचना, रक्षा-संबंध, वित्त आदि अनेक रूपों में वे आ सकते हैं। राजनीतिक पराधीनता तो उसका उप अंग ही है। संस्कृतियों और उपसंस्कृतियों में अंतर हो सकता है। अलग सांस,अलग गौरव,अलग अस्मिता,अलग सम्मान आदि-आदि।
संस्कृतियों का आपसी सम्भाव ही जीवन और नागरिकता की असली सर्जनात्मकता है। संस्कृति और समुदायों के बीच सहअस्तित्व दुनिया की स्वाधीनता के प्रति विश्वास दिलाता है,अपनी संस्कृति से प्यार करना दूसरे की संस्कृति से नफरत करने का तर्क नहीं। क्या संस्कृति बाधा है या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक रूप? यह आप के परिप्रेक्ष्य पर निर्भर करता है। यदि इसे हम संकुचित रूप में लें तो यह बंधन बन सकता है। अभिव्यक्ति अपने आप में स्वाधीनता है! इसमें कोई शक नहीं कि पूरी दुनिया में अराजक तत्व संस्कृति के शुभ पक्ष को चुनौती देते रहते हैं।
स्वतंत्रता स्थगित करने का कोई तर्क नहीं, किंतु यह मुफ्त में नहीं मिल सकती। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। यह कीमत है-निरंतर जागृत बने रहना। कभी विचारों, कभी जीवन जीने की प्रणाली, कभी असहमति को दबाने की कोशिश तो कभी किताबें जलाई जाती हैं, कभी सांस्कृतिक प्रतीकों पर हमला होता है। स्वतंत्रता समझदारी का विषय है। इसमें व्यक्तिगत और सामाजिक स्वतंत्रता दोनों ही शामिल हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता को सामाजिक स्वतंत्रता के अधीन करने से कई बार वैयक्तिक सृजनशीलता का अंत हो जाता है, लिहाजा दोनों बनी रहनी चाहिए। वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए सामाजिक स्वतंत्रता का वातावरण बनाना उचित होगा। स्वतंत्रता लोकतंत्र का ही दूसरा रूप है। इसे किसी संविधान में यंत्रवत नहीं बांधा जा सकता। इसको अनुभव का विषय भी बनाया जाना चाहिए। यह लोक का यथार्थ है।और लोक का स्वप्न भी है। अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध लोकतंत्र का प्रमुख आधार है। अधिनायकवाद के विरुद्ध संघर्षशील प्रेस का होना जरूरी है। वैचारिक स्वतंत्रता तो होनी ही चाहिए।
अनेक पार्टियां अपनी ही धारा को उचित मानती हैं तथा अन्यों की धारा से बिदकती रहती हैं। उन्हें दूसरों के सच को भी मान देना चाहिए और जहां तक स्वीकार्यता का प्रदर्शन है,तो स्वीकार भी करना चाहिए। इसी में स्वतंत्रता के निहितार्थ भी निकलते हैं। यह एक तरह से स्वतंत्रता का अन्वेषण है। विपथन को सकारात्मक दिशा में ले जाना स्वतंत्र कर्म है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मात्र राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए। आज स्वतंत्रता के आयाम बदल गए हैं। विश्व में चल रहे परिवर्तनों के साथ समुदायों के भीतर उपभेदों, परस्पर विरोधी हितों, इच्छाओं, तनावों, मूल्यों, सांस्कृतिक पक्षों और व्यक्तिगत समंजन तक स्वतंत्रता को लक्षित किया जा रहा है। पर अब सचेतन समाजों को दबाया जाना संभव न होगा। लोकतंत्र का निषेध कर अपनी अमानवीय और अनागरिक किस्म की मनमानी कर पाना संभव नहीं है। विविध सांस्कृतिक माध्यमों जैसे-भाषा, वेशभूषा, सोच, कला और कानून आदि के रूप में थोपी गई पराधीनता भी अब स्वीकार्य न होगी, क्योंकि सूचनाओं के अंबार में किसी किस्म की तानाशाही को छुपाया जाना संभव न होगा। विविध माध्यमों से प्रतिरोध होंगे।
किसी व्यक्ति, समुदाय या समाज के सपनों का विरोध अभिव्यक्ति की पराधीनता को ही पुष्ट करना है, क्योंकि वास्तविक लोकतांत्रिक संस्कृति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता विविध विचारों की सहनशीलता, संचार की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति के प्रसार आदि में निहित है। ऐसे में किसी समूह, भाषा, सांस्कृतिक पक्ष की आवाज न दबाई जाए। नस्लवाद न पनपे। उदारवाद और समंजनशीलता को बढ़ाने के प्रयत्न तेज होने चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सम्मान दिया जाए। हमें बहुसांस्कृतिक नागरिकता में प्रवेश कर समता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सदा सचेत रहना चाहिए। अगस्त क्रांति का यही संदेश है।
(कमल किशोर डुकलान शिक्षाविद रूडकी) साभार
No comments:
Post a Comment