सा विद्या या विमुक्तये


 !!शिक्षक की भूमिका यम नियम के

                 सिद्धांत पर आधारित हो!!


 आजकल शिक्षा और शिक्षक का अर्थ बदल रहा है। व्यवसायिकरण के दौर में शिक्षा का स्वरूप भी बदल गया है। लिहाजा शिक्षक की मुख्य भूमिका यम-नियम के सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए तभी हम युवाओं की ऊर्जा को राष्ट्र निर्माण की रचनात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं।.....


विष्णु पुराण में कहां गया है:-

"सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही है, जो हमें विमुक्ति प्रदान करे! हमें सत् चित आनंद(सच्चिदानंद) का साक्षात्कार कराकर विश्व के हर मानव को ज्ञान के प्रकाश द्वारा अज्ञान, दुर्गुण और अन्य न्यूनताओं से मुक्त करने वाली शिक्षा प्रदान करना ही प्रचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली का शाश्वत सत्य प्राचीन काल से रहा है।


वर्तमान संदर्भ में शिक्षा का अर्थ मानव की अंतर्निहित क्षमताओं का प्रकटीकरण है। शिक्षा को मानव में निहित विविध प्रतिभाओं तथा क्षमताओं की पहचान एवं प्रकटीकरण के आधार स्तंभ के रूप में ग्रहण किया गया है। हमारे प्राचीन महान संतों तथा तपस्वियों ने शिक्षा प्रणाली के मूल उद्देश्य को  कार्यान्वित करने में शिक्षक की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है।आजकल शिक्षा और शिक्षक का अर्थ बदल रहा है। व्यवसायिकरण के दौर में शिक्षा का स्वरूप भी बदल गया है। लिहाजा शिक्षक की भूमिका और समाज में उनके प्रति नजरिया भी बदला है।

लिहाजा शिक्षक की मुख्य भूमिका यम-नियम के सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए तभी हम युवाओं की ऊर्जा को राष्ट्र निर्माण की रचनात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं।लेकिन हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि हम इस दुनिया के आरंभिक दिनों में विद्यालयी परिवेश में जो कुछ भी सीखते हैं, उसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका हमारे शिक्षकों की होती है।

शिक्षक अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह,शौच,संतोष,तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्राणिधान यम-नियम के दस सिद्धांतों की भावना से छात्रों के मन में  स्वस्थ वातावरण का निर्माण कर सकते हैं, जिसका अनुसरण कालांतर में अन्य लोग भी करेंगे। शिक्षक को युवा हृदयों के मन-मस्तिष्क में महान गुणों का बीजारोपण प्रारंभिक विद्यार्थी जीवन से ही करना चाहिए।

यह हमारे प्राचीन एवं अर्वाचीन साहित्य, जिसमें हमारे राष्ट्रीय आदर्शों और ऐतिहासक घटनाओं का चित्रण रहता है,उसके अध्ययन से ही हो सकता है। युवाओं में प्रारंभ से ही अपने ऋषि-मुनियों की महान परंपराओं की गौरवानुभूति होनी चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है,जब हम अपनी राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक परंपराओं का सम्मान करेंगे।


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्री गुरु जी के शब्दों में, -प्रेरणास्पद उत्तम आदर्श के अभाव में हम छात्रों से यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि वे जीवन के मूल्यों के प्रति समर्पण तथा अनुशासन को आत्मसात कर लें। यही ऐसा उच्च आदर्शवाद है, जिससे प्रेरित होकर वे अपने उग्र आवेग को संयमित कर अपने युवाओं की ऊर्जा को राष्ट्र निर्माण की रचनात्मक दिशा में मोड़ सकते हैं।

अतः शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने ही होंगे। इतिहास के पाठन में हमें युवाओं को यह सिखाना ही होगा कि जिस धरती पर उन्होंने जन्म लिया है,वह  महान है और उसके पूर्वजों ने भौतिक व अध्यात्मिक उपलब्धियों के ऐसे मानदंड स्थापित किए हैं,जो आज भी मील के पत्थर हैं।


इसके विपरीत हमारे इतिहास का अधिकांश भाग मुगल काल और ब्रिटिश काल है। यदि युवाओं को यही शिक्षा दी जाती रही कि भूतकाल में हमारा कुछ भी महान नहीं था, केवल मुगलों और अंग्रेजों के आने के बाद हमारे राष्ट्र का विकास हुआ है और हमारे पूर्वज किसी प्रतिस्पर्धा के योग्य नहीं थे,तो हम छात्रों से किसी सार्थकता की अपेक्षा नहीं कर सकते। हमारे विद्यालयों में इतिहास और महाकाव्यों से संबंधित चित्र लगे होने चाहिए।


आर्यभट्ट एवं भास्कराचार्य की भौतिकी विज्ञान की उपलब्धियां- मसलन पाई, शून्य एवं गुरुत्वाकर्षण के संस्कृत में सदियों पहले लिखे सूत्र,चरक एवं सुश्रुत का अद्वितीय आयुर्विज्ञान का भंडार,भास्कराचार्य बीजगुप्त का गणित एवं भौतिकी के संबंध में विश्व को दिया योगदान,बोधायन का पाइथागोरस से सैकड़ों वर्ष पूर्व दिया प्रमेय हमें अपनी युवा पीढ़ी को बताना ही होगा।

और यह सब कार्य वर्तमान  समय में शिक्षकों के द्वारा ही संभव है। अपने भूतकाल एवं अपने पूर्वजों के प्रति गौरव जगाने पर ही देश के भविष्य के मन में वर्तमान की दुर्दशा के प्रति पीड़ा उत्पन्न होगी जो एक उज्ज्वल, समर्थ और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण करने के लिए शिक्षकों के माध्यम से उनका प्रेरणा सूत्र बनेगी।

         कमल किशोर डुकलान

                रुड़की (हरिद्वार)

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