परमार्थ निकेतन में मनाया गया ईगास पर्व



💥 *इगास का पर्व उल्लास का पर्व-पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज*


*ऋषिकेश, 15 नवम्बर( अमरेश दुबे संवाददाता गोविंद कृपा ऋषिकेश* )परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज ने आज प्रदेशवासियों को बूढ़ी दिवाली की शुभकामनायें देते हुये कहा कि रोशनी का पावन पर्व ‘दिवाली’ भगवान श्री राम के 14 साल के वनवास से घर लौटने की खुशी में मनाया जाता है, लेकिन बूढ़ी दिवाली विशेष रूप से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अन्य हिस्सों में मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि अयोध्या में भगवान राम के लौटने की खबर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश तक पहुंचने में लगभग एक महीने का समय लगा इसलिये इन राज्यों के लोग इसे बूढ़ी दिवाली के रूप में मनाते है। 

किंवदंतियों के अनुसार, यह त्योहार पिछले 200 वर्षों से मनाया जा रहा है। ढोल और नगाढ़ों की ताल पर बड़े उत्साह, उल्लास और भक्ति के साथ बूढ़ी दिवाली का पर्व मनाया जाता है।

परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष पूज्य स्वामी चिदानन्द सरस्वती जी महाराज ने कहा कि रोशनी का यह पर्व बूढ़ी दिवाली का अपना धार्मिक महत्व है साथ ही यह उत्सव और उल्लास का भी पर्व है। प्रतीकात्मक रूप से, बूढ़ी दिवाली एकजुटता, अपने परिवार के साथ समय बिताने और अपने प्रियजनों से भेंट करने का त्योहार भी है। यह पर्व सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसने प्राचीन काल से अपनी विशिष्ट पहचान और पहाड़ी व्यंजनों के स्वाद को जीवंत बनाये रखा है।



स्वामी जी  ने कहा कि पर्व और त्यौहार अर्थ व्यवस्था और संस्कारों के दृष्टिकोण से किसी भी समाज की रीढ़ हैं। भारतीय अर्थ व्यवस्था और कृषि के दृष्टिकोण से भी त्योहारों का अत्यंत महत्व है। जीवन के सभी चरणों में प्रत्येक व्यक्ति को कुछ कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन विजेता वही होता है जो इन कठिन परिस्थितियों से निपटने की कला जानता है और दीपावली का पर्व हमें यही संदेश देता है कि भगवान श्री राम ने एकाग्रता, निरंतरता और दृढ़संकल्प के बल पर राम राज्य की स्थापना की। 

पूज्य स्वामी जी ने कहा कि भारत में 365 दिनों में  700 से अधिक पर्व और त्यौहार मनाये जाते है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति प्रकृति संरक्षण एवं संवर्धन का संदेश देती है। इगास पर्व के माध्यम से वर्तमान पीढ़ी भारतीय संस्कृति को समझे, जाने और जिये ताकि भारतीय संस्कृति हमेशा जीवंत बनी रहे।


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