या रब वे न समझे हैं, न समझेंगे मेरी बात



 !!!!कृषि कानूनों की वापसी सरकार के लिए सबक!!

 

कृषि कानूनों की वापसी के बाद देश के किसानों को एक ऐसे कृषि विकास के लिए आगे आना होगा,जिसका लाभ गरीब,भूमिहीन,खेतिहर मजदूरों तक पहुंच सके।.......


पिछले एक वर्ष से तीन कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन के समापन की आशा बलवती हो गई है। कार्तिक पूर्णिमा गुरु नानक जयंती पर राष्ट्र के नाम सम्बोधन में देश के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के ये शब्द खास मायने रखते हैं कि ‘मैं देश की जनता से सच्चे और नेक दिल से माफी मांगता हूं। हम किसानों को नहीं समझा पाए। पिछले एक वर्ष से सरकार के प्रयासों में कुछ कमी रही होगी कि हम देश के किसानों को मना नहीं पाए,कृषि कानूनों की  वापसी प्रधानमंत्री द्वारा यह एक निर्णायक घोषणा है,जिसके प्रभाव-दुष्प्रभाव आने वाले समय की राजनीति पर साफ तौर पर दिखाई देंगे। किसानों का भारत में एकाधिक कानूनों को वापस लेने के लिए चला यह सबसे लंबा सक्रिय आंदोलन रहा,जिसे आने वाले दशकों तक शायद ही भुलाया जा सकेगा। जिसकी चर्चा खेत से लेकर संसद तक चलती रहेगी। कौन सही-कौन गलत का फैसला हर कोई अपनी-अपनी दृष्टि से करता रहेगा। तमाम तरह की वैचारिक विविधता से भरे इस देश में किसानों के आंदोलन को शायद हमने नए तरह से लंबे जमीनी आंदोलन चलाने का तरीका सीख लिया है। इस आंदोलन को भले ही कुछ राज्यों में सबसे अधिक समर्थन मिल रहा है,लेकिन इसका असर आने वाले समय में तमाम राज्यों पर पड़ेगा। 


भारतीय लोकतंत्र के लिए यह किसान आंदोलन शायद किसी उपलब्धि से कम नहीं है। भारतीय राजनीति ने भी बहुत कुछ सीखा है,आगे के लिए नई आशाओं के साथ अनेकानेक संभावनाएं भी हैं और आशंकाएं भी।कृषि कानूनों की वापसी सरकारों के लिए पहला सबक तो यही है कि आने वाले समय में किसी भी सरकार को किसानों से संबंधित कोई भी कानून बनाने से पहले बहुत कुछ सोच-विचार करना पड़ेगा। दूसरा सबक किसानों और देश के दूसरे वर्गों के लिए यह है कि अगर किसी भी आंदोलन को  मजबूती से चलाया जाए,तो मनवांछित फल पाया जा सकता है। तीसरा महत्वपूर्ण सबक सबक,लोकतंत्र में सरकारों के लिए यह है कि हमेशा उदारता का दामन थामे रखना चाहिए। क्योंकि उदारता कम होते ही आगामी समय में आंदोलनों को बल मिलेगा। चौथा सबक,चुनाव ही देश की भविष्य की दिशा तय करते हैं,अत: कोई फैसला लेते समय सरकारों को व्यापक जनहित के बारे में भी जरूर सोच लेना चाहिए। पांचवां सबक,हमारा देश कृषि आधारित देश है जिस कारण देश में अभी भी किसानों का वर्चस्व है। देश का बाजार अभी इतना मजबूत नहीं हुआ कि किसानों की नाराजगी का जोखिम उठा सके। 

लेकिन सवाल अब भी बरकरार हैं, पिछले लम्बे समय से चले किसान आन्दोलन से किसान नेताओं में अविश्वास अब भी कायम है,अत: आंदोलन को सड़क से लौटने में समय लग सकता है। मुमकिन है, किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून लाने पर अड़ जाएं। खैर, किसान संगठनों को अपनी नई मजबूती का व्यापक और तार्किक लाभ उठाने के बारे में सोचना चाहिए। बाजारों और मंडियों में किसानों का शोषण करने वाले ज्यादातर दलाल या व्यापारी किसान या ग्रामीण परिवारों से ही आते हैं। कौन लोग हैं,जो किसानों को उनके मनमाफिक समर्थन मूल्य नहीं दे रहे हैं? कौन लोग हैं,जो किसानों से दस रुपये किलो टमाटर खरीदकर पचास रुपये से ज्यादा कीमत पर बेचते हैं? क्या किसान संगठन किसानों के ऐसे शोषकों के खिलाफ आंदोलन नहीं चला सकते? क्या किसान संगठन मंडियों में होने वाले भ्रष्टाचार का अंत नहीं कर सकते हैं? सरकार ज्यादातर छोटे किसानों के प्रति चिंता जता रही है,तो वह गलत नहीं है। कृषि सुविधाओं,न्यूनतम समर्थन मूल्य या सब्सिडी का लाभ केवल चंद संपन्न किसानों तक क्यों सीमित रहना चाहिए? जिन संगठनों ने तीन कृषि कानूनों को रोक लिया है,उन्हें स्वयं आगे आकर ऐसा कृषि विकास सुनिश्चित करना चाहिए, जिसका लाभ गरीब भूमिहीन खेतिहर मजदूरों तक पहुंच सके।

(कमल किशोर डुकलान  रुड़की)

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