चुनाव की बयार में सिद्धांतहीन राजनीति

 !!दलबदल से सिद्धांतविहीन राजनीति को बल मिलेगा!!

(कमल किशोर डुकलान रूडकी) 

चुनाव वाले राज्यों में नेताओं के दलबदल जैसे हास्यास्पद सिलसिले से यही स्पष्ट हो रहा है कि इससे न केवल सिद्धांतविहीन राजनीति को बल मिलेगा,बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं को भी गंभीर क्षति पहुंचेगी।.....



 चुनावी मौसम में चुनाव वाले राज्यों में दलबदल का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसा लगता है कि नामांकन पत्र दाखिल करने की अंतिम तिथियों तक यह सिलसिला कायम ही रहने वाला है। आमतौर पर दलबदल करने वाले इसी थोथे तर्क का सहारा लेने में लगे हुए हैं कि वे अभी तक जिस दल में थे,वह या तो अपने उद्देश्य से भटक गया है या फिर उसमें अमुक समुदायों और वर्गो अथवा इलाकों की उपेक्षा हो रही है।

हैरानी यह है कि उन्हें यह ज्ञान अचानक प्राप्त हो रहा है। पांच साल तक वे जिस दल का गुणगान करते रहते हैं,अचानक उसमें उन्हें खामियां दिखने लगती हैं। इसी तरह जिस विरोधी दल में वे हजार खामियां गिनाते होते थे,उसे ही यकायक सबसे बेहतर बताने लगते हैं। यह राजनीतिक छल के अलावा और कुछ नहीं है। इससे न केवल जनतंत्र का उपहास ही नहीं उड़ता,बल्कि इसकी पुष्टि भी होती है कि दलबदलू नेता यह मानकर चलने लगे हैं कि वे बहुत आसानी से अपने समर्थकों के साथ-साथ अपने क्षेत्र के मतदाताओं को भी बहकाने में सफल हो जाएंगे।

विडंबना यह है कि जनता भी उनके झांसे में आ जाती है। वह कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर दलबदलू नेताओं के पीछे खड़ी हो जाती है। हालांकि यह साफ है कि दलबदल करने वाले नेता अपने निजी फायदे अथवा अपने सगे संबंधियों को मनचाही जगह से टिकट दिलाने के फेर में पालाबदल रहे हैं, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि वे जिन दलीलों की आड़ लेते हैं,उसका मकसद लोगों की आंखों में धूल झोंकना होता है। कई मामले तो ऐसे भी सामने आ रहे हैं जिनमें पाला बदलने वाले नेता प्रत्याशी न बनाए जाने के कारण किसी अन्य राजनीतिक दल की ओर रुख कर रहे हैं या फिर अपने मूल दल में लौटने की कोशिश कर रहे हैं।

चुनावी मौसम में नेताओं की दलबदल की इस कसरत से यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि नेताओं के लिए विचारधारा कपड़ों की तरह हो गई है। वे जिस तरह नए-नए वस्त्र धारण करते हैं,उसी तरह राजनीतिक विचारधारा को भी बदल रहे हैं। यह हास्यास्पद सिलसिला तब तक चलते रहने वाला है जब तक राजनीतिक दल दलबदलुओं को प्रोत्साहित करते रहेंगे। जितना जरूरी यह है कि राजनीतिक दल दलबदलू नेताओं को हतोत्साहित करें, उतना ही यह भी कि जनता भी ऐसे नेताओं से दूरी बनाए। यदि बार-बार दल बदलने वाले नेता राजनीतिक दलों और मतदाताओं की ओर से पुरस्कृत होते रहे तो इससे न केवल सिद्धांतविहीन राजनीति को बल मिलेगा, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं को गंभीर क्षति भी पहुंचेगी। ऐसे में चुनाव आयोग को यह विचार करना चाहिए कि चुनावी मौसम में थोक रुप में होने वाले दलबदल पर कैसे लगाम लगाई जाए?

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