!!व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर विद्या भारती!!
(कमल किशोर डुकलान रुड़की )
एतद्देश प्रसूतस्य शकासाद अग्र जन्मन:।
स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन पृथिव्या सर्व मानवा:।
भारत विश्व का प्रथम एक ऐसा राष्ट्र है। जिसने विश्व को सभ्यता व संस्कृति का वो ज्ञान दिया जिस कारण भारत को सम्पूर्ण विश्व अपना गुरु मानता था। हमारे ऋषि-मुनि एवं पूर्वजों के चरित्रों से शिक्षा लेकर पृथ्वी के सभी लोगों ने अपना जीवन संवारा है। यही कारण है कि भारत विश्व गुरु था। उसी विश्वगुरु भारत ने दीर्घकाल काल तक चले संघर्ष एवं सदगुण विकृति के फलस्वरूप अपना गुरुत्व खो दिया। अपना गुरुत्व खो देने से भारत कमजोर हुआ। भारत की इस कमजोरी का लाभ उठाकर पहले मुगलों ने और बाद में अंग्रेजों ने इस पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। केवल अधिकार ही नहीं किया बल्कि अंग्रेजों ने तो इसके श्रेष्ठ वेद ज्ञान को मिथक घोषित कर शिक्षा की मूल धारा से बाहर कर दिया।
भारत की स्वाधीनता से पूर्व अंग्रेजो के शासन काल में स्वदेश प्रेमियों के ध्यान में यह बात आ गई थी कि यह अंग्रेजी शिक्षा भारतीय नवयुवकों में भारतीयता के संस्कार मिटाकर उनमे अंग्रेजीयत भर रही है, जो आगे चलकर देश के लिए घातक सिद्ध होगी। इस अंग्रेजी शिक्षा के विरोधस्वरूप सबसे पहले रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाना राज बसु ने राष्ट्रीय शिक्षा का बीडा उठाया। उनके बाद महर्षि अरविन्द, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानंद, भगिनी निवेदिता, स्वामी दयानंद सरस्वती, लाल-बाल-पाल तथा गांधीजी ने राष्ट्रीय शिक्षा की ज्योति को प्रज्जवलित रखा।
स्वाधीनता के पश्चात् सारा देश चाहता था कि अब देश स्वाधीन हो गया है, अंग्रेज चले गए हैं इसलिए अंग्रेजी शिक्षा को हटाकर पुन: भारतीय शिक्षा प्रतिष्ठित करनी चाहिए। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब एक पत्रकार ने विनोबा भावे से पूछा था कि स्वतंत्र भारत में आप कैसी शिक्षा चाहते हैं? विनोबा जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “अब भारत में भारतीय शिक्षा लागू होनी चाहिए। भारतीय शिक्षा को लागू करने के लिए यदि छ: माह का समय लगे तो छः महीने तक देश के सभी विद्यालय बंद कर देने चाहिए। जब छः महीने बाद विद्यालय खुले तब उनमें भारतीय ज्ञान ही दिया जाए।” किन्तु उस समय के नेतृत्व ने विनोबा जी की बात नहीं मानी और वही अंग्रेजी शिक्षा चलने दी। इतना ही नहीं बल्कि देश की शिक्षा व्यवस्था उन लोगों के हाथों में सौंपी जो शरीर से भारतीय होने के बाद भी मन और विचारों से अभारतीय मानस के थे। स्वतंत्र भारत में भी जब अभारतीय शिक्षा ही दी जाती रही,तब उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में स्व भावराव देवरस के मार्गदर्शन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से सन् 1952 में जिनमें व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण की शिक्षा के लिए विद्या भारती ने शिक्षा के क्षेत्र में आना आवश्यक समझा। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने के लिए विद्या भारती ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया है इस लक्ष्य के माध्यम से विद्या भारती शिक्षा के माध्यम से जो करना चाहती उसका स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया है।
विद्या भारती इस प्रकार की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना चाहती है, जिसके द्वारा ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके जो हिन्दुत्वनिष्ठ एवं राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत हो, शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो तथा जो जीवन की वर्तमान चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर सके और उसका जीवन ग्रामों, वनों, गिरिकन्दराओं एवं झुग्गी-झोपडियों में निवास करने वाले दीन-दुखी, अभावग्रस्त अपने बान्धवों को सामाजिक कुरीतियों, शोषण एवं अन्याय से मुक्त कराकर राष्ट्र जीवन को समरस, सुसम्पन्न, एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए समर्पित हो।
विद्या भारती का यह लक्ष्य अपने आप में इतना व्यापक एवं इतना सुविचारित है कि कुछ और कहना शेष नहीं रह जाता। लक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश में विदेशी शिक्षा प्रणाली नहीं राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली हो, जिससे हमारी युवा पीढ़ी हिन्दुत्वनिष्ठ युवा हो जो राष्ट्र के उत्थान हेतु हर तरह से समर्पित हो। विद्या भारती के लक्ष्य के अनुसार पुस्तकीय ज्ञान जानकारी तो बढ़ा सकता है किन्तु जीवन निर्माण नहीं कर सकता। इसी प्रकार व्यक्तित्व विकास से व्यक्तित्व आकर्षक तो बनाया जा सकता है, किन्तु व्यक्तित्व की मूलभूत सम्भावनाओं का विकास नहीं हो सकता। हम जानते हैं कि मनुष्य का व्यक्तित्व अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोशपंच कोशात्मक है। इन पांचों कोशों के सम्यक विकास से शरीर, प्राण,मन,बुद्धि तथा चित्त जब विकसित होते हैं,तो व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हुआ माना जाता है। केवल इतना ही नहीं तो जब तक विकसित व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन नहीं होता। इसी प्रकार व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन करते हुए जब उसे परमेष्ठी की ओर अग्रसर किया जाता है, तभी वह ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इस उक्ति को सार्थक करने की योग्यता अर्जित करता है।
विद्यार्थी को शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर अधिक अंक लाने के लिए नहीं दी जाती, वह तो जीवन की चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए कुलदीपक बनाने के लिए समाजसेवी बनाने के लिए देशभक्त निर्माण करने के लिए तथा सम्पूर्ण मानवता के लिए जीवन खपाने हेतु दी जाती है। ऐसा जीवन केवल पुस्तकें पढ़ने से नहीं बनता अपितु क्रिया,अनुभव,विचार,विवेक तथा दायित्व बोध आधारित शिक्षा देने से बनता है। यही भारतीय शिक्षा भी है, इसी शिक्षा से योग्य एवं निष्ठावान नागरिक निर्माण होते हैं, यह विद्या भारती का अनुभूत मत है। भारतीय शिक्षा से ही हमारा देश पुनः एक बार जग सिरमौर बनेगा जिसे विद्या भारती के विद्यालयों में प्रतिदिन हमारी प्रार्थना में जग सिरमौर बनाये भारत वह बल बिक्रम दें संकल्प दोहराया जाता है।
भारतीय शिक्षा के माध्यम से भारत को पुनः जग सिरमौर बनाने में रत विद्या भारती ने अपने चार आयाम खड़े किए हैं। जो निम्न प्रकार से हैं:-देश की विद्वत् शक्ति को इस ज्ञान यज्ञ में आहुति देने के लिए विद्वत परिषद,शिक्षा में क्रिया शोध कर उसे और अधिक उपयोगी बनाने के लिए क्रिया शोध विभाग,भारतीय संस्कृति मय जीवन बनाने हेतु संस्कृति बोध परियोजना,अपने विद्यालयों से पूर्व छात्रों को मिले संस्कार अमिट रहें, इसके लिए पूर्व छात्र परिषद इन चार आयामों के माध्यम से विद्या भारती ने विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया है।
व्यक्ति के पंच कोषीय विकास में योग, शारीरिक, संगीत, संस्कृत एवं नैतिक एवं आध्यात्मिक पांच आधारभूत विषयों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। शारीरिक व योग शिक्षा से शरीर व प्राण का विकास होता है। संगीत शिक्षा मन को साधती है। संस्कृत शिक्षा उच्चारण एवं बुद्धि का सम्यक विकास करती है, वहीं नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा हमारे धर्म और संस्कृति से जोड़कर उसके चित्त को निर्मल करती है।
स्वाधीनता पूर्व से संपूर्ण देश में राष्ट्रीय शिक्षा स्थापना के जो प्रयास चल रहे थे,उन प्रयासों को स्व की शिक्षा और स्व के तंत्र से ही देश समृद्ध व सुसंस्कृत बनाने के लिए विद्या भारती ने 1952 से देशवासियों के मानस में बिठाकर उन्हें पश्चिम का अंधानुकरण न करने तथा अपनी आत्म विस्मृति को हटाते हुए स्वाभिमान जगाने की प्रेरणा देने के लिए
जीवित रखा है।
इसी प्रकार सम्पूर्ण देश में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी नहीं, मातृभाषा होना चाहिए, इसकी चर्चा देश भर में चलाते हुए मातृभाषाओं के महत्त्व को बढ़ाया है। देश में समय-समय पर बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा को राष्ट्र की मुख्य जड़ों से जोड़ने की संस्तुतियां देकर भारत सरकार को शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए दिशा प्रदान की है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में विद्या भारती की अनेक संस्तुतियों को स्थान मिला है।
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