गढ़वाल के जननायक श्री देव सुमन जी को शत शत नमन

 25 जुलाई/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी  : श्रीदेव सुमन


1947 से पूर्व भारत में राजे-रजवाड़ों का बोलबाला था। कई जगह जनता को अंग्रेजों के साथ उन राजाओं के अत्याचार भी सहने पड़ते थे। श्रीदेव ‘सुमन’ की जन्मभूमि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में भी यही स्थिति थी। उनका जन्म 25 मई, 1916 को बमुण्ड पट्टी के जौल गांव में श्रीमती तारादेवी की गोद में हुआ था। इनके पिता श्री हरिराम बडोनी क्षेत्र के प्रसिद्ध वैद्य थे। प्रारम्भिक शिक्षा चम्बा और मिडिल तक की शिक्षा उन्होंने टिहरी से पाई। संवेदनशील हृदय होने के कारण वे ‘सुमन’ उपनाम से कविताएं लिखते थे।


अपने गांव तथा टिहरी में उन्होंने राजा के कारिंदों द्वारा जनता पर किये जाने वाले अत्याचारों को देखा। 1930 में 14 वर्ष की किशोरावस्था में उन्होंने ‘नमक सत्याग्रह’ में भाग लिया। थाने में बेतों से पिटाई कर उन्हें 15 दिन के लिए जेल भेज दिया गया; पर इससे उनका उत्साह कम नहीं हुआ। अब तो जब भी जेल जाने का आह्नान होता, वे सदा अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते।


पढ़ाई पूरी कर वे हिन्दू नेशनल स्कूल, देहरादून में पढ़ाने लगे। इसके साथ ही उन्होंने साहित्य रत्न, साहित्य भूषण, प्रभाकर, विशारद जैसी परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कीं। 1937 में उनका कविता संग्रह ‘सुमन सौरभ’ प्रकाशित हुआ। वे हिन्दू, धर्मराज, राष्ट्रमत, कर्मभूमि जैसे हिन्दी व अंग्र्रेजी पत्रों के सम्पादन से जुड़े रहे। वे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के भी सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन्होंने गढ़ देश सेवा संघ, हिमालय सेवा संघ, हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद, हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि संस्थाओं की स्थापना की।


1938 में विनय लक्ष्मी से विवाह के कुछ समय बाद ही श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित एक सम्मेलन में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने बहुत प्रभावी भाषण दिया। इससे स्वाधीनता सेनानियों के प्रिय बनने के साथ ही उनका नाम शासन की काली सूची में भी आ गया। 1939 में सामन्ती अत्याचारों के विरुद्ध ‘टिहरी राज्य प्रजा मंडल’ की स्थापना हुई और सुमन जी इसके मंत्री बनाये गये। इसके लिए वे वर्धा में गांधी जी से भी मिले। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में वे 15 दिन जेल में रहे। 21 फरवरी, 1944 को उन पर राजद्रोह का मुकदमा ठोक कर भारी आर्थिक दंड लगा दिया।


पर सुमन जी तो सामंतशाही को


अपना शासन मानते ही नहीं थे। उन्होंने अविचलित रहते हुए अपना मुकदमा स्वयं लड़ा और अर्थदंड की बजाय जेल स्वीकार की। शासन ने बौखलाकर उन्हें काल कोठरी में ठूंसकर भारी हथकड़ी व बेड़ियों में कस दिया। राजनीतिक बन्दी होने के बाद भी उन पर अमानवीय अत्याचार किये गये। उन्हें जानबूझ कर खराब खाना दिया जाता था। बार-बार कहने पर भी कोई सुनवाई न होती देख तीन मई, 1944 से उन्होंने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया।


शासन ने अनशन तुड़वाने का बहुत प्रयास किया; पर वे अडिग रहे और 84 दिन बाद 25 जुलाई, 1944 को जेल में ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। जेलकर्मियों ने रात में ही उनका शव एक कंबल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम स्थल पर फेंक दिया।


सुमन जी के बलिदान का अर्घ्य पाकर टिहरी राज्य में आंदोलन और तेज हो गया। एक अगस्त, 1949 को टिहरी राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हुआ। तब से प्रतिवर्ष 25 जुलाई को उनकी स्मृति में ‘सुमन दिवस’ मनाया जाता है। अब पुराना टिहरी शहर, जेल और काल कोठरी तो बांध में डूब गयी है; पर नई टिहरी की जेल में वह हथकड़ी व बेड़ियां सुरक्षित हैं। हजारों लोग वहां जाकर उनके दर्शन कर उस अमर बलिदानी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

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