समन्वयवादी परंपरा के संवाहक स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि महाराज.
( भारत माता मंदिर के संस्थापक निवृत्त शंकराचार्य पद्म भूषण से अलंकृत महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज के " अवतरण दिवस पर विशेष आलेख )
आध्यात्मिक जगत के दैदीप्यमान सूर्य, सनातन परंपरा के संतों में सहज, सरल और तपोनिष्ठ स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि महाराज ज्योतिषपीठ बद्रिकाश्रम से संबद्ध आचार्यपीठ भानपुरा के निवृत जगद्गुरु शंकराचार्य थे। 26 वर्ष की अल्पवय में ही शंकराचार्य-पद पर अभिषिक्त होने के बाद दीन-दुखी, गिरिवासी, वनवासी, हरिजनों की सेवा और साम्प्रदा
यिक मतभेदों को दूर कर समन्वय-भावना का विश्व में प्रसार करने के लिए सनातन धर्म के महानतम पद को उन्होंने तृणवत् त्याग दिया था। समन्वय-पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, भारतमाता मन्दिर से प्रतिष्ठापक ब्रम्हानिष्ठ स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि महाराज समन्वय सेवा ट्रस्ट, भारत माता जनहित ट्रस्ट, स्वामी सत्यमित्रानंद फॉउन्डेशन, प्रभु प्रेमी संघ आदि के संस्थापक थे।
जन्म - 19 सितम्बर सन 1932 आगरा, उत्तरप्रदेश.
देहावसान - 25 जून सन 2019 हरिद्वार, उत्तराखंण्ड.
महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि महाराज का जन्म 19 सितम्बर सन 1932 को आगरा, उत्तर प्रदेश के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवशंकर पांडेय और माता का नाम त्रिवेणी देवी था। बाल्यकाल में उनका नाम अंबिका प्रसाद पाण्डेय रखा गया था। बाल्यावस्था से ही वह अध्ययनशील, चिंतक और निस्पृही व्यक्तित्व के धनी थे। बालक अम्बिका प्रसाद का झुकाव शुरू से ही अध्यात्म की ओर था। उनके पिता राष्ट्रपति पुरुस्कार सम्मानित शिक्षक शिवशंकर पांडेय ने उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने की प्रेरणा दी थी। दस वर्ष की अवस्था में ही वह नैमिषारण्य आ गये और प्राचीन धर्मग्रन्थों का अध्ययन करने लगे। नैमिषारण्य में स्वामी वेदव्यासानन्द सरस्वती ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था की थी। एक बार वहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शीत शिविर लगा, जिसमें तात्कालिक सरसंघ चालक श्री गुरुजी भी आये थे। बालक अम्बिका प्रसाद के मन में श्री गुरुजी के लिए बहुत श्रद्धा थी। वह पैदल चलकर शिविर में पहुँचे और उनसे आग्रह किया कि वे कुछ देर के लिए उनके आश्रम में चलें। श्री गुरुजी ने उन्हें प्रेम से अपने पास बैठाया और गर्म दूध पिलवाया, इससे उनका उत्साह दूना हो गया परन्तु गुरुजी का प्रवास दूसरे स्थान के लिए निश्चित था। अतः बालक अम्बिका ने दुराग्रह नहीं किया, श्री गुरुजी से हुई इस भेंट ने उनके मन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अमिट छाप पड़ गईं थीं। सन 1949 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक व समाजसेवी नानाजी देशमुख का भाषण सुना और तभी से वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अति निकट आ गये थे। महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंद महाराज से उन्हें सत्यमित्र ब्रह्मचारी नाम मिला और साधना के विविध सोपान भी प्राप्त हुए थे। शिक्षा पूर्ण होने पर उन्हें भानुपुरा पीठ, मध्य प्रदेश के शंकराचार्य स्वामी सदानन्द गिरि ने संन्यास की दीक्षा दी, अब उनका नाम स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि हो गया था।
29 अप्रैल सन 1960 अक्षय तृतीया के दिन सत्यमित्रानंद गिरि ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ पर जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। लेकिन उनका मन आश्रम के वैभव और पूजा पाठ में कम ही लगता था। वह तो गरीबों के बीच जाकर उनकी सेवा करना चाहते थे, परन्तु शंकराचार्य पद की मर्यादा इसमें बाधक थी, अतः उन्होंने इसके लिए योग्य उत्तराधिकारी ढूँढकर उन्हें सब कार्य सौंप दिया। जिस दण्ड को धारण करने मात्र से ही 'नरो नारायणो भवेत्' का ज्ञान हो जाता है, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि महाराज ने सन 1969 में स्वयं को शंकराचार्य पद से मुक्त कर मां गंगा में उस पवित्र दंड का विसर्जन कर दिया और इसके बाद वह आजीवन परिव्राजक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न रहें।
निरंजनी अखाड़े के महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि के मन में भारत माता के प्रति अगाध श्रद्धा और प्रेम था। उन्होंने धर्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय-चेतना के समन्वित दर्शन एवं भारत की विभिन्नता में भी एकता की प्रतीति के लिए पतित-पावनी-भगवती-भागीरथी गंगा के तट पर भारतमाता-मन्दिर बनवाया जो उनके मातृभूमि प्रेम व उत्सर्ग का अद्वितीय उदाहरण है। भारतमाता मन्दिर में विभिन्न तलों पर भारत के महान पुरुषों, नारियों, क्रान्तिकारियों, समाजसेवियों आदि की प्रतिमाएँ लगी हैं। इनको देखते हुए दर्शक जब सबसे नीचे आता है, तो वहाँ अखण्ड भारत के मानचित्र के आगे सुजलाम्, सुफलाम् भारत माता की विराट मूर्ति के दर्शन कर वह अभिभूत हो उठता है। अन्य मन्दिरों की तरह यहाँ पूजा, भोग, स्नान आदि कर्मकाण्ड नहीं होते हैं। इस मन्दिर से देश-विदेश के लाखों लोग दर्शन कर आध्यात्म, संस्कृति, राष्ट्र और शिक्षा सम्बन्धी विचारों की चेतना और प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। भारत माता मन्दिर और समन्वय सेवा ट्रस्ट द्वारा अनेक सेवा कार्य चलाये जाते हैं। इनमें वेद विद्यालय, विकलांग एवं कुष्ठजन सेवा, चिकित्सा वाहन, वृद्धाश्रम, दृष्टिहीन सेवा, शहीद परिवार सेवा, सफाईकर्मी सेवा आदि प्रमुख हैं।
श्री गुरुजी के प्रति अपार श्रद्धा के कारण सन 2006 में "श्री गुरुजी जन्मशती समारोह समिति" का अध्यक्ष पद उन्होंने सँभाला था। स्वामी सत्यमित्रानंद भले ही हिंदू धर्म से जुड़े हुए संत थे, लेकिन उन्हें अन्य धर्मों के विषय में भी बहुत ज्ञान था। उनका मानना था कि अपने धर्म के प्रति गौरव की भावना और दूसरे धर्म के प्रति सहिष्णुता के सिद्धांत से विश्व में शांति आ सकती है। इसी दृष्टिकोण के अनुसार उन्होंने अपने हरिद्वार स्थित आश्रम का नाम "समन्वय कुटीर" रखा था। स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि छूआछूत के प्रबल विरोधी थे। स्वामी सत्यमित्रानंद की धर्म, संस्कृति और लोक कल्याण से जुड़ी सेवाओं को देखते हुए ही भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान "पद्मभूषण" से अलंकृत किया था। वह हिन्दू हितचिन्तन के लिए समर्पित होकर आजीवन देश और धर्म की सेवा करते रहें, स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि महाराज 25 जून सन 2019 में अपना पाञ्चभौतिक शरीर त्यागकर ब्रह्मलीन हो गये थे।
परम पूज्य गुरुदेव के अवतरण दिवस पर सभी गुरु भाई बहनों को हार्दिक शुभकामनाएं
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